होली का नाम सुनते ही अतीत के न जाने कितने चित्र गौरी शंकर की आँखों के आगे घूम गये। न जाने कितनी यादें थीं जो फिर से मन की गहराइयों को छू गयीं। टेसू के फूलों का रंग और उसकी महक, ढोलक की थाप और ढोल की धमक, एकसाथ झूमने-गाने की मस्ती और अकेलेपन की कसक, सब कुछ जैसे एक पल में महसूस कर लिया उन्होंने। याद आ गया रामचरन पाण्डे, गुलाल तो माथे पर चुटकी भर लगाता था पर कम्बख्त बाँहों में भर कर ऐसा भींचता कि साँस रुकने लगती, साथ में उसका भाई, ‘थोड़ा लगाऊँगा’ कहते-कहते सिर में ढेर सारा रंग डाल कर भाग जाता। याद आये लाला हजारी मल, पार्वती इस लिये उनसे पर्दा करती कि वे उसके पति से उम्र में चार दिन बड़े थे। धूल वाले दिन लाला जबरन पार्वती का घूँघट हटाते, गुलाल लगाते और ठहाका मार कर कहते ‘फागुन में जेठ कहे भाभी’। पार्वती फिर भी लालाजी के पैर छूती और वे उसे जी भर कर आशीर्वाद देते। अब कहाँ हैं ऐसे लोग।...आगे-*
पूनम पांडेय की
लघुकथा- जवाब*
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आओ व्यक्ति का वसंत खोजें
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